बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर और भेदभाव :
बचपन से ही जातिगत भेदभाव का शिकार हुए भीमराव ने समाज को छूआछूत और अस्पृश्यता से छुटकारा दिलाने में ही अपना जीवन लगा दिया. उन्होंने पाया कि देश की आबादी के बड़े हिस्से को नीचा और पिछड़ा बताकर विकास की धार से अलग रखा जा रहा है. उन्होंने कानून के तहत, हर जाति के लोगों को पढ़ाई और नौकरी में आरक्षण दिलाने का काम किया.
आधुनिक भारत के शिल्पकारों में से एक बाबासाहब भीमराव अंबेडकर देश के सबसे महान राजनेताओं में से एक हैं. बचपन से ही जातिगत भेदभाव का शिकार हुए भीमराव ने समाज को छूआछूत और अस्पृश्यता से छुटकारा दिलाने में ही अपना जीवन लगा दिया. उन्होंने पाया कि देश की आबादी के बड़े हिस्से को नीचा और पिछड़ा बताकर विकास की धार से अलग रखा जा रहा है. उन्होंने कानून के तहत, हर जाति के लोगों को पढ़ाई और नौकरी में आरक्षण दिलाने का काम किया.
क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी के अनुसार, बचपन में एक बार भीमराव अपने भाई और बहन के साथ रेल में सवार होकर अपने पिता से मिलने के लिए रवाना हुए. उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में सिपाही थे और एक छावनी में काम करते थे. जब वह ट्रेन से उतरे तो स्टेशन मास्टर ने उन्हें पास बुलाकर कुछ पूछताछ की. जैसे ही स्टेशन मास्टर को उनकी जाति का पता चला, वह 5 कदम पीछे हट गया.
इसके आगे जाने के लिए उन्होंने तांगा लेने की कोशिश की, मगर कोई तांगेवाला उनकी जाति के चलते उन्हें ले जाने को तैयार नहीं होता था. एक तांगावाला तैयार हुआ मगर उसने शर्त रखी कि तांगा बच्चों को खुद ही हांकना होगा. भीमराव खुद तांगे को हांककर ले गए. बीच रस्ते तांगेवाला तो खुद उतरकर एक ढाबे पर उतरकर भोजन करने लगा, मगर बच्चों को अंदर नहीं घुसने दिया गया. उन्हें पास ही बह रही एक रेतीली धारा से अपनी प्यास बुझानी पड़ी.
अम्बेडकर ने कहा था "छुआछूत गुलामी से भी बदतर है। अम्बेडकर बड़ौदा के रियासत राज्य द्वारा शिक्षित थे, अतः उनकी सेवा करने के लिए बाध्य थे। उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण कुछ ही समय में उन्हें यह नौकरी छोड़नी पडी। उन्होंने इस घटना को अपनी आत्मकथा, वेटिंग फॉर अ वीजा में वर्णित किया। इसके बाद, उन्होंने अपने बढ़ते परिवार के लिए जीविका साधन खोजने के पुनः प्रयास किये, जिसके लिये उन्होंने लेखाकार के रूप में, व एक निजी शिक्षक के रूप में भी काम किया, और एक निवेश परामर्श व्यवसाय की स्थापना की, किन्तु ये सभी प्रयास तब विफल हो गये जब उनके ग्राहकों ने जाना कि ये अछूत हैं।1918 में, ये मुंबई में सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बने। हालांकि वे छात्रों के साथ सफल रहे, फिर भी अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के बर्तन साझा करने पर विरोध किया।
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भारत सरकार अधिनियम 1919, तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अंबेडकर को साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अंबेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की। 1920 ई में, बंबई से, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन शीघ्र ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब अंबेडकर ने इसका प्रयोग रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका आम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया।
बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर का नाम कौन नहीं जानता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव और छुआछूत के उन्मूलन जैसे कार्यों के लिए समर्पित कर दिया था।
सामाजिक समता और सामाजिक न्याय जैसे सामाजिक परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम अग्रणी है। उन्हें ही बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक मामलों पर उनका मन संवेदनशील एवं व्यापक था। वे कहा करते थे- एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है।
बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर को बचपन से ही छूआछूत से जूझना पड़ा :
अम्बेडकर जी को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा। विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव होता रहा। इस भेदभाव ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई। उन्होंने छूआछूत का समूल नाश करने की ठान ली। उन्होंने कहा कि जनजाति,अति पिछड़े,महिला एवं दलित आदि के अधिकारो के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए। देशभर में घूम-घूम कर उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक किया। उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूकनायक’ (लीडर ऑफ साइलेंट) शुरू किया। एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया जिसकी देशभर में चर्चा हुई। इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया।
बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर द्वारा छूआछूत का आजीवन विरोध :
बाबासाहब ने जीवनर्पयत छूआछूत का विरोध किया। उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए। वह कहते- ‘आप स्वयं को अस्पृश्य न मानें अपना घर साफ रखें। घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता,भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।’
बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर द्वारा सामाजिक समानता को महत्व :
वह सामाजिक समानता को बहुत महत्व देते थे। वह कहते थे- ‘जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं होती। एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी जरूरी है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है। और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है।’
वह राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे। वह स्वयं के बारे में कहते थे- ‘मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें।’ वह कहते थे- ‘न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं यह जीवन का एक माध्यम है। निस्संदेह देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा।’
बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर ने अपनाया था बौद्ध धर्म :
आंबेडकर का बचपन अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक माहौल में बीता था। इस वजह से उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। वह कहते थे-‘मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए।’ वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में पुस्तक लिखी।
उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। वर्ष 1955 में उन्होंने भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आम सभा आयोजित की जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया। कुछ समय पश्चात छह दिसंबर, 1956 को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया। वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) से सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया था। श्रमिकों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन भी किया था। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मन्त्री, भारतीय संविधान के जनक एवं भारत गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे।
निष्कर्ष :
हम यह कह सकते है बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन छुआछूत,भेदभाव,दलित, पिछड़ों,महिलाओं के अधिकारो को दिलवाने में गुजार दिया।उन्होंने समाज में फैली अवस्थाएं कुरीतियां दूर करने के लिए अनेक कार्य किए लेकिन उच्च वर्ग का वर्चस्व और प्रभाव ज्यादा होने के कारण उनको अनेक समस्याओं का सामना किया जिनका उन्होंने बखूबी सामना करके समाधान करने का प्रयास किया जिसमे वे सफल भी हुए। उन्होंने भारतीय संविधान को लिखकर साबित किया।जिसका अनुसरण आज सभी देशवासी कर रहे हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षो से भारतीय संविधान का अनुपालन सही ढंग से नहीं हो पा रहा है।जिसका प्रमुख कारण राजनीतिक दलों द्वारा संविधान का उल्लंघन करके अपने हित साधे जा रहे जो की एक लोकतांत्रिक देश के लिए खतरा है।इसलिए हम सबको मिलकर संविधान की रक्षा करनी चाहिए और इन असमाजिक तत्वों पर अंकुश लगाकर एक अच्छे लोकतांत्रिक राष्ट्र के विकास में भागीदार बनकर आगे बढ़ना चाहिए।