उत्तराखंड GK : कुली बेगार आन्दोलन का संपूर्ण इतिहास , पृष्ठभूमि , प्रथा का अंत

उत्तराखंड GK : कुली बेगार आन्दोलन का संपूर्ण इतिहास , पृष्ठभूमि , प्रथा का अंत 

कुली बेगार प्रथा क्या थी


कुली बेगार प्रथा उत्तराखंड में काफी पहले से मौजूद थी परंतु 1815 में अंग्रेजों का उत्तराखंड में अधिकार हो गया जिसके बाद कुली बेगार प्रथा के द्वारा उत्तराखंड के लोगों का अत्याचार भी बढ़ गया

आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिये कराने को कुली बेगार (Kuli Begar) कहा जाता था, विभिन्न ग्रामों के प्रधानों का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में कुली शासक वर्ग को उपलब्ध करायेगा। इस कार्य हेतु प्रधान , पटवारी या मालदार के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी ग्राम वासियों के नाम लिखे होते थे और सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था।

यह तो घोषित बेगार था और इसके अतिरिक्त शासक वर्ग के भ्रमण के दौरान उनके खान-पान से लेकर हर ऐशो-आराम की सुविधायें भी आम आदमी को ही जुटानी पड़ती थी।


कुली बेगार के प्रकार

1. कुली उतार : जब गांव के लोग सड़कों पर उतरकर कुली काम करते थे तो इसे कुली उतार कहा जाता था ।
2. कुली बेगार : जब कोई ब्रिटिश अधिकारी एक गांव से दूसरे गांव जाता था तो वहां के लोगों से निशुल्क कुली का कार्य करवाया जाता था ।
3. कुली बदायश: जब अंग्रेज़ अधिकारी तथा उनके साथ के अन्य कर्मचारी किसी गांव में जाते थे तो उसे गांव के लोगों को उन सबके लिए खाद्य सामग्री की व्यवस्था करनी होती थी। 

प्रधानों, जमीदारों और पटवारियों के मिलीभगत से व आपसी भेद-भाव के कारण जनता के बीच असन्तोष बढता गया क्योंकि गांव के प्रधान व पटवारी अपने व्यक्तिगत हितों को साधने या बैर भाव निकालने के लिये इस कुरीति को बढावा देने लगे। इस कुप्रथा के खिलाफ लोग एकत्रित होने लगे।


कभी-कभी तो लोगों को अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था। जैसे कि अंग्रेजों की कमोड (शौचासन) या गन्दे कपडे आदि ढोना। इसके विरोध में भी लोग परस्पर एकजुट होने लगे।

अंग्रेजों द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से दोहन किया जा रहा था।


कुली बेगार आन्दोलन का इतिहास


सबसे पहले चन्द शासकों ने उत्तराखंड राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर 'घोडालों' निरूपति किया था, सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया गोरखों का मत था कि ब्राह्मणों के पर पूजे जाते हैं सर नहीं इसलिए एक गोरख कल में ब्राह्मणों को भी बेगार देना पढ़ता था । अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमनकारी रूप तक पहुंचाया। पहले यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे।


अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे। पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही।


कुली बेगार आन्दोलन की पृष्ठभूमि


1857 में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए। लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ छिटपुट रूप से समय समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। इसमें अंग्रेजों द्वारा कुमांऊ के जंगलों की कटान और उनके दोहन से उपजा हुआ असंतोष भी था। यह असंतोष घनीभूत होते होते एक बार फिर बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध में'कुली विद्रोह' के रूप में फूट पड़ा।


1913 में कुली बेगार (Kuli Begar) यहां के निवासियों के लिये अनिवार्य कर दिया गया। इसका हर जगह पर विरोध किया गया, बद्री दत्त पाण्डे जी ने इस आंदोलन की अगुवाई की। अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण के साथ-साथ विरोध भी प्रारम्भ कर दिया।


1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें पं० गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, हर गोबिन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी, श्याम लाल शाह आदि लोग सम्मिलित हुये और बद्री दत्त पाण्डे जी ने कुली बेगार आन्दोलन के लिये महात्मा गांधी से आशीर्वाद लिया और वापस आकर इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण करने लगे।


कुली बेगार प्रथा का अंत

गढ़वाल से बेगार प्रथा का विरोध करने वाला प्रथम व्यक्ति पंथ्या दादा जन्म सुमंडी पौड़ी।
13-14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्व के अवसर पर कुली बेगार आन्दोलन की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन में आम आदमी की सहभागिता रही, अलग-अलग गांवों से आये लोगों के हुजूम ने इसे एक विशालकाय प्रदर्शन में बदल दिया। सरयू और गोमती के संगम (बगड़ - बागनाथ मंदिर) कुमाऊं की काशी के मैदान से इस आन्दोलन का उदघोष हुआ।

इस आन्दोलन के शुरू होने से पहले ही जिलाधिकारी द्वारा पं० हरगोबिन्द पंत, लाला चिरंजीलाल और बद्री दत्त पाण्डे को नोटिस थमा दिया लेकिन इसका कोई असर उनपर नहीं हुआ, उपस्थित जनसमूह ने सबसे पहले बागनाथ जी के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और फिर 40 हजार लोगों का जुलूस सरयू बगड़ की ओर चल पड़ा, जुलूस में सबसे आगे एक झंडा था, जिसमें लिखा था “कुली बेगार बन्द करो", इसके बाद सरयू मैदान में एक सभा हुई, इस सभा को सम्बोधित करते हुये बद्रीदत्त पाण्डे जी ने कहा “पवित्र सरयू का जल लेकर बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करो कि आज से कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे।” सभी लोगों ने यह शपथ ली और गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया। यहीं से इस कुप्रथा का अंत हो गया।


लॉर्ड कर्जन की उत्तराखंड यात्रा 1903 :

लॉर्ड कर्जन 1903 में अल्मोड़ा आया तथा जब यह गढ़वाल की ओर जा रहा था तब इसे २ लोगो ने मुलाकात की ।

अल्मोडा (Almora) का तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में मौजूद था, उसने बद्री दत्त पाण्डे जी को बुलाकर कहा कि "तुमने दफा 144 का उल्लंघन किया है, तुम यहां से तुरंत चले जाओ, नहीं तो तुम्हें हिरासत में ले लूंगा।" लेकिन बद्रीदत्त पाण्डे जी ने दृढ़ता से कहा कि “अब मेरी लाश ही यहां से जायेगी", यह सुनकर वह गुस्से में लाल हो गया, उसने भीड़ पर गोली चलानी चाही, लेकिन पुलिस बल कम होने के कारण वह इसे मूर्त रुप नहीं दे पाया।


इस सफल आंदोलन के बाद जनता ने बद्री दत्त पाण्डे जी को कुमाऊं केसरी की उपाधि दी, इस आन्दोलन का लोगों ने समर्थन ही नहीं किया बल्कि कड़ाई से पालन भी किया और इस प्रथा के विरोध में लोगों का प्रदर्शन जारी रहा। इसकी परिणिति यह हुई कि सरकार ने सदन में एक विधेयक लाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया।


इस आंदोलन से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुये और स्वयं बागेश्वर आये और चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की। इसके बाद गांधी जी ने यंग इंडिया में इस आन्दोलन के बारे में लिखा कि "इसका प्रभाव संपूर्ण था, यह एक रक्तहीन क्रान्ति थी।"


महत्वपूर्ण नोट्स


Q. 'कुली बेगार प्रथा 'का हल निकालने के लिए खच्चर सेना की स्थापना करने वाले कमिश्नर का नाम था?


Ans. कमिश्नर ट्रेल 1822


Q. 'उत्तराखंड में कुली-बेगार प्रथा' के लेखक कौन हैं?


Ans. डॉ. शेखर पाठक


Q. 'बेगार आंदोलन' कब और कहाँ से आरम्भ हुआ ?


Ans. 13-14 जनवरी, 1921 को बागेश्वर में सरयू और गोमती के संगम (बगड़ - बागनाथ मंदिर) कुमाऊं की काशी में उत्तरायणी पर्व के अवसर पर


Q. जनवरी 1921 में निम्न में से किस स्थान पर सरयू नदी तट पर 'कुली बेगार' न देने की शपथ ली गई ?


Ans. बागेश्वर


Q. कुली-बेगार प्रथा का अंत किस मेले के दौरान हुआ था ?


Ans. उत्तरायणी मेले में


Q. कुली बेगार आंदोलन का नेतृत्व किनके द्वारा किया गया ?


Ans. बद्रीदत्त पाण्डेय, हरगोविंद पंत एवं चिरंजीलाल


 बागेश्वर: बागनाथ नगरी में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर लगने वाले उत्तरायणी मेले का पौराणिक, धार्मिक व व्यावसायिक महत्व के साथ- साथ ऐतिहासिक महत्व भी है। इसी दिन बागेश्वर में अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था। आजादी के रणबांकुरों ने ब्रिटिश सरकार की परवाह किए बगैर बेगार प्रथा के रजिस्टर सरयू नदी में प्रवाहित किए थे। जनता के इस आंदोलन से प्रभावित होकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसे रक्तहीन क्रांति का नाम देकर बागेश्वर में 1929 में बड़ी सभा को संबोधित किया था।

अग्रेजी शासनकाल में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में बेगार प्रथा का चलन था।। वर्ष 1910 में पहली बार एक किसान ने इस प्रथा के खिलाफ इलाहाबाद न्यायालय में याचिका दायर की। न्यायालय ने बेगार प्रथा को गैर कानूनी प्रथा करार दिया। लेकिन अंग्रेजी सरकार ने न्यायालय के आदेश को आम जनता तक पहुंचने ही नहीं दिया तथा बेगार प्रथा को जारी रखा। बाद में पहाड़ के प्रबुद्ध जनों ने कुमांऊ परिषद के नाम का संगठन बनाकर लोगों को बेगार प्रथा के खिलाफ जागरूक किया। परिषद में एड. भोलादत्त, पांडे, कुमांऊ केसरी बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी, हरगोविंद पंत, रिटायर्ड डिप्टी कलक्टर बद्रीदत्त जोशी, तारा दत्त गैरोला मुख्य भूमिका में थे।


बापू की अपील का हुआ असर


बागेश्वर: कुली उतार आंदोलन की सफलता में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अपील का बड़ा असर हुआ। कुमाऊं परिषद के एक दल ने गांव गांव जाकर लोगों को प्रथा के खिलाफ गोलबंद किया तथा एक दल ने नागपुर जाकर महात्मा गांधी को इसकी जानकारी दी। महात्मा गांधी उस वक्त तो पहाड़ नहीं आए लेकिन उन्होंने पहाड़ के लोगों से अपील की कि वह बेगार प्रथा का विरोध करें तथा किसी भी ब्रिटिश अधिकारी के आवास व भोजन की व्यवस्था न करें। बापू के इसी संदेश को लेकर परिषद के कार्यकर्ता गांव गांव गए।


पुलिस के सामने ही बहाए रजिस्टर


बागेश्वर: प्रथा के विरुद्ध लोगों में फैल रहे आक्रोश को देखते हुए कमिश्नर ने 14 जनवरी 1921 को निषेधाज्ञा लागू कर बड़ी संख्या में पुलिस तैनात कर दी। लेकिन पुलिस की परवाह किए बगैर ही क्षेत्र के प्रधानों, थोकदारों ने एक स्वर में बेगार प्रथा का विरोध करते हुए पुलिस के सामने ही रजिस्टर सरयू नदी में प्रवाहित कर दिए। इस आंदोलन की सूचना देशभर में आग की तरफ फैल गई। आंदोलन से प्रभावित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया।


राजनैतिक परंपरा आज भी कायम


बागेश्वर: रक्तहीन क्रांति के गवाह रहे सरयू तट पर हर वर्ष मकर संक्रांति पर राजनैतिक दल मंच लगाकर लोगों को संबोधित करते हैं तथा वर्षभर के कार्यक्रमों की घोषणा करते हैं। राजनैतिक दल शक्ति प्रदर्शन भी करते हैं।


जनवरी 1921 में राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बडे़ आंदोलन की तैयारी चल रही थी। पर्वतीय क्षेत्र में आवागमन के साधन नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार कुली उतार और कुली बेगार जैसी अमानवीय व्यवस्था का सहारा ले रही थी। पहाड़ के लोगों के लिए यह बड़ी समस्या थी। उत्तरायणी का मेला इस कुप्रथा के विनाश का बड़ा माध्यम बना। आज जिस सरयू बगड़ पर राजनीतिक दलों के पंडाल लगते हैं,1921 की उत्तरायणी में यही स्थान देश भक्ति के एक बड़े घटनाक्रम का साक्षी बना। 1 जनवरी 1921 को चामी गांव में कुली बेगार के खिलाफ एक बड़ी सभा हुई। यहां तय हुआ कि कुली उतार के खिलाफ कुमाऊं व्यापी अभियान चलाया जाएगा। इसके बाद उत्तरायणी मेले को इसके प्रचार और विस्तार का माध्यम बनाने की रणनीति बनी। 10 जनवरी को अल्मोड़ा से बद्रीदत्त पांडे और हरगोविंद पंत सहित कई आंदोलनकारी बागेश्वर पहुंचे। इसके बाद मेले में जुलूस प्रदर्शन, सभाओं का दौर चला। कुली बेगार के रजिस्टर सरयू में बहा दिए गए। बेगार नहीं देने की शपथ ली गई। इसी संकल्प और संदेश को लेकर मेलार्थी घरों को लौटे। आंदोलन का इतना गहरा असर हुआ कि बागेश्वर आए असिस्टेंट कमिश्नर डायबिल और अन्य अधिकारियों को कुली तक नहीं मिले। बाद में कुली उतार प्रथा खत्म हुई। इसका बड़ा श्रेय उत्तरायणी मेले को जाता है।


योजना के तहत वह 13 जनवरी 1921 को वह चामी गांव के हरज्यू मंदिर पहुंचे। अंग्रेज अफसर डाईबिल ने उन्हें जुलूस न निकालने की चेतावनी दी। लेकिन उन्होंने उनकी एक न सुनी। जुलूस में नगर के श्याम लाल साह, शिव लाल वर्मा, चंद्र सिंह शाही समेत कई लोग शामिल हो गए। गोरी सरकार का कड़ा पहरा चल रहा था। बड़ी संख्या में पहुंचे क्रांति वीरों ने अंग्रेजों की परवाह किए बिना क्रांतिकारियों ने सरयू बगड़ में सभा की और कुली उतार, बेगार, बर्दायश जैसे काले कानूनों के रजिस्टर पवित्र सरयू में बहा दिए। आजादी के रणबांकुरों के इस बड़े निर्णय से जहां अंग्रेज हुक्मरान भौचक रह गए, वहीं इससे कूर्मांचल में आजादी की लड़ाई की ज्वाला भी तेज हो गई।


कूर्मांचल में मिली इस सफलता को देख गांधी जी काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने कूर्मांचल के लोगों को शाबासी देने के लिए यहां आने का कार्यक्रम तय किया। गांधी 14 जून 1929 को कौसानी पहुंचे। उन्होंने वहां 14 दिन रहकर अखंड शांति योग की भाषा टीका लिखी। उन्होंने कौसानी की सुंदरता से अभिभूत होकर इसे दूसरा स्विट्जरलैंड नाम दिया। गांधी जी 28 जून 1929 को बागेश्वर पहुंचे और उन्होंने ऐतिहासिक नुमाइशखेत में सभा की और कुली उतार, बेगार, बर्दायश जैसे काले कानूनों को उखाड़ फेंकने में मिली सफलता पर क्रांति वीरों की सराहना की। 


जाका, अल्मोड़ा: ब्रितानी हुकूमत के अत्याचारों से त्रस्त गुलाम हिंदुस्तानियों के 1857 का विद्रोह गदर नाम से इतिहास में दर्ज हो गया। यही था स्वतंत्रता आदोलन का पहला सशक्त शंखनाद। इसने दक्षिण से उत्तर व पूरब से पश्चिम तक के भारतवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा कर दिया। कुमाऊंभला इससे भला कैसे अछूता रह सकता था। पहाड़ के बाके वीर संग्राम में कूद गए। इसकी भनक जैसे ही अंग्रेजी शासकों के कमिश्नर रैमजे हेनरी को लगी वह तत्काल कुमाऊं पहुंच गया। उसने कुमाऊं व गढ़वाल में मार्शल लॉ लागू कर दिया। सारी आंदोलनकारी गतिविधियों पर रोक लगा दी गई। अब ब्रिटिश साम्राज्य के हुक्मरानों का अत्याचार और बढ़ गया। गरम दल के कई स्वतंत्रता संग्रामियों को नैनीताल के एक गधेरे में फांसी पर लटका दिया गया। उस गधेरे का नाम ही फांसी गधेरा पड़ गया। आज भी वह इसी नाम से जाना जाता है। 1958 आते-आते इसकी आग काली कुमाऊं में उग्र बगावत के रूप में फैल गई। विशुं पटट्ी के देश भक्त कालू सिंह महरा, आंनद सिंह फत्र्याल व विशन सिंह करायत आर-पार के संघर्ष के लिए कूद गए। आंनद सिंह फत्र्याल व विशन सिंह करायत को सरकार का विद्रोही करार देते हुए अंग्रेजों ने उन्हें गोली से उड़ा दिया। कालू सिंह महरा को आजीवन जेल की सजा सुनाई गई। इसी दौर में स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा आए। उनके ओज का परिणाम था कि लाला बद्री साह ठुलघरिया ने आर्थिक मदद के लिए आंदोलन में दिल खोल कर पैसा दिया। तभी युवा स्वामी सत्यदेव का भी आगमन हुआ। उन्होंने परतंत्रता के खिलाफ खड़े हो कर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष का पाठ पढ़ाया। जिससे अनेक युवा प्रभावित हुए। उनमें ज्वाला दत्त जोशी, वाचस्पति पंत, हरीराम पांडे, सदानंद सनवाल, शेख मानुल्ला व बद्री साह प्रमुख आंदोलकारियों में गिने जाते हैं। उसी दौर में देशभक्ति भावना व अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आग उगलने वाली साप्ताहिक पत्रिका 'अल्मोड़ा अखबार' ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। अल्मोड़ा से निकला यह समाचार पत्र राष्ट्रीय पत्रिका बन गई। इस पत्रिका का संपादन कुर्माचल केसरी बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी व जयंिहंद का नारा देने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी राम सिंह धौनी जैसे संग्रामी ने किया।


प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख गतिविधियां


1914 में बद्री दत्त पांडे, लाला चिरंजी लाल, डॉ. हेम चंद्र जोशी, मोहन जोशी ने होम रूल लीग की स्थापना की।

- 1917 में कुमाऊं परिषद की स्थापना हुई। अग्रणी भूमिका में भारत रत्‍‌न पं.गोविंद बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पांडे, तारा दत्त गैरोला, बद्री दत्त जोशी, प्रेम बल्लभ पांडे, बैरिस्टर मुकंदी लाल, इंद्र लाल साह, मोहन सिंह दरम्वाल रहे।

1920 में महात्मा गांधी के नागपुर अधिवेशन में बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल कुली बेगार अन्याय को लेकर मिला।

- 1921 में मकर संक्रांति के दिन कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू में प्रवाहित किया गया।

-1941 में गांव-गांव में सत्याग्रहियों ने स्वाधीनता आंदोलन चलाया

- पांच सितंबर 1942 को खुमाड़ में अंग्रेजों ने गोली चलाई, जिसमें गंगा राम, खीमानंद व चार दिन बाद चूड़ामणी, बहादुर सिंह की मौत हो गई।

- प्राचीन काल में बेगार प्रथा के स्थान पर विष्टि शब्द का प्रयोग किया जाता था

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